रविवार, 28 जून 2020

सौदा- एक लघुकथा




थानेदार साहब ने स्थिति का मुआना किया। फिर गठडी बनी अधजली लाश की ओर इशारा करके पूछा, "कौन है इसका पति  ? "


पतिदेव ने मगरमच्छी आंसू पोंछते हुए कांपते स्वर में कहा, "मैं... मैं हूँ इसका अभागा पति। "



"हूँह.... क्या नाम है तेरा  ? "



रा... राजू।



थानेदार साहब ने राजू के कन्धे पर हाथ रखा और उसे एक तरफ ले गए।
"हूँह... ये सब कैसे हुआ? सच सच बोलना। "



"जी..जी.. खाना बनाते बनाते पता नहीं कैसे इसकी साड़ी के पल्लू में आग लग गई। " राजू ने आंसू पोंछते हुए कहा।



"आग लग गई या लगाई गई, क्यों ? " थानेदार साहब ने डंडे के सिरे को उसकी छाती पर रखते हुए पूछा।



राजू इस अप्रत्याशित प्रश्न से एकदम झेंप गया। पांव तले से जमीन खिसक गई।  हाथ पैर कांपने लगे। उसके बदन में घबराहट की लहर सी दौड गई। उसने लड़खड़ाती सी जुबान से कहा, " जी.. जी.. ये क्या कह रहे हैं आप ? "



"हम पुलिस वालों को सच उगलवाना अच्छी तरह आता है। समझा...। " थानेदार साहब ने सिगरेट सुलगा कर मुंह से धुंआ उडाते हुए राजू के कंधे पर हाथ रखकर एक तरफ ले जाकर धीरे से कहा, " क्या तुम चाहते हो कि यह केस हत्या का नहीं बल्कि हादसा लगे।" थानेदार साहब ने डंडे के छोर से राजू की ठोड़ी को उपर उठाते हुए अपनी नजरें उसके चेहरे पर गडा दी।



"जी.. जी... । " राजू ने थूक निगलते हुए स्वीकृति दी।



"पच्चास हजार लेकर थाने में पहुँच जाना। समझे...। " थानेदार साहब ने सुलगती आधी सिगरेट के टुकड़े को पैर से कुचल दिया और फिर शैतानी नजरों से राजू को घूरा।


अब साहब की नजरें सिपाही की ओर थीं, " राम सिंह .... । "


"यस सर... " राम सिंह एकदम अलर्ट हो गया।


"लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दो। "


"जैसा हुक्म सर। "


थानेदार साहब ने एक बार फिर बारी बारी से एक सरसरी सी नजर वहाँ पर खड़े परिवार के हर सदस्य पर गढाई। उनके भयभीत चेहरों में उसे दो दो हजार के गुलाबी नोट दिखाई दे रहे थे। उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कान फैल गई। वह तेजी से पलटा और बाहर निकल गया।



राजू थाने में पहुंचा। साहब टेलीफोन पर किसी से बात कर रहे थे। वह खडा रहा। थानेदार साहब ने टेलीफोन का रिसीवर रखते हुए कहा, " साथ वाले कमरे में सरदार जी बैठे हैं। वहाँ जाकर एफ. आई. आर. दर्ज करवा दे और हां पैसे भी उसी को दे देना।"



मुंशी जी राजू को देख कर एकदम खुशी से उछल पडे जैसे पहले से ही उसकी प्रतिक्षा में बैठे हो। वे बोले, "आ जा आ जा... लंगिया। राजू है तेरा नाम। "



"जी जनाब। "



"बैठ जा...। "  सरदार जी ने सामने पडी कुर्सी की तरफ इशारा किया।
"बादशाहो तुसी काम बड़ी बहादुरी दा किता है ..साहब ने घट ही मंगिया तुहाडे कोलों... चलो खेर कोई गल नहीं। लया किधर ए माल..फेर तेरा कम वी करिये ।"

राजू ने कोट की जेब से पांच सौ के नोट की गड्डी निकालकर मुंशी जी की तरफ बढ़ा दी । 

"ओए पीछे कर...पीछे कर.. ऐदां नहीं...मेज दे थलियों दी ।


राजू ने घबराकर हाथ पीछे खींचा और इधर उधर देखा । फिर मुंशी जी की तरफ देखकर मेज के नीचे से नोटों की गड्डी पकड़ा दी ।

शाबाश......मुंशी जी ने नोटों की गड्डी पकड़कर दराज में फेंक दी और दराज लॉक कर दिया ।
मुंशी जी बोले, " ले हुन तेरी एफ.आई.आर. दर्ज करिये ।

सरदारजी ने आँखों पर चश्मा चढ़ाया और फिर उनकी कलम रेंगती सी टूटे फूटे अक्षरों को जन्म देती कागज पर दौड़ने लगी ।

थोड़ी देर बाद ।

"लो बादशाहो अपनी एफ.आई.आर. दी कापी । फेर सेवा दा मौका देना...तुहाडे जिहे बन्दिया करके ही साडा कारोबार चलदा है ।"

राजू ने एफ.आई.आर. की कापी पढ़कर जेब के हवाले की  और हाथ जोड़ दिए, "जनाब, में आपका अहसान.. ।

ठीक है... ठीक है...जा, घबराई ना..शाबाश ।


सरदार जी ने चश्मा उतारकर मेज पर रख दिया ।

राजू ने बाहर निकलकर दीर्घ नि:श्वाश छोड़ी । अब वह तनावमुक्त था ।

अत्याचार की शिकार एक और महिला का न्याय भ्र्ष्ट सिस्टम की गंदगी के नीचे दबकर दम तोड़ चुका था और अपराधी  एक विजेता की तरह तन कर अपने घर की और बढ़ रहा था ।


गुरिंदर सिंह

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